ये दिल, ये पागल दिल मेरा क्यों बुझ गया ... आवारगी
इस दश्त में इक शहर था वो क्या हुआ ... आवारगी
कल शब मुझे बेशक्ल सी आवाज़ ने चौंका दिया
मैंने कहा तू कौन है, उसने कहा ... आवारगी
ये दर्द की तनहाइयाँ, ये दश्त का वीराँ सफ़र
हम लोग तो उकता गये अपनी सुना ... आवारगी
लोगों भला उस शहर में कैसे जियेंगे हम
जहाँ हो जुर्म तनहा सोचना, लेकिन सज़ा ... आवारगी
इक अजनबी झोंके ने जब पूछा मेरे ग़म का सबब
सहरा की भीगी रेत पर मैंने लिखा ... आवारगी
एक तू कि सदियों से मेरे हमराह भी हमराज़ भी
एक मैं कि तेरे नाम से ना-आश्ना ... आवारगी
ले अब तो दश्त-ए-शब की सारी वुस-अतें सोने लगीं
अब जागना होगा हमें कब तक बता ... आवारगी
कल रात तनहा चाँद को देखा था मैंने ख़्वाब में
‘मोहसिन’ मुझे रास आएगी शायद सदा ... आवारगी
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